मुख्य बातें:
- मथुरा की 84 वर्षीय समाजसेवी शशि एलन ने अपने नेत्रदान से दो लोगों की अंधेरी जिंदगी में रोशनी भर दी।
- शशि एलन के दो बेटे और एक बेटी हैं, जो आईएएस अधिकारी, डॉक्टर या व्यवसायी हैं।
- शशि एलन ने अपने जीवन में गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए भी काम किया था।
- शशि एलन ने अपने देहदान का भी संकल्प लिया था, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनके परिवार ने सिर्फ उनके नेत्रदान की अनुमति दी।
संस्मरण:
मथुरा की समाजसेवी शशि एलन का जीवन बहुत ही प्रेरणादायक है। उन्होंने अपने जीवन में हमेशा दूसरों की मदद करने का काम किया। वह एक सच्ची साध्वी थीं, और उन्होंने अपने अंतिम समय में भी अपने संकल्पों को पूरा किया।
शशि एलन का जन्म एक संपन्न परिवार में हुआ था। उन्होंने अपने जीवन में हमेशा ही धार्मिक अनुष्ठान किए। उन्होंने चारों धाम भी घूमे और कुंभ स्नान भी किया। उन्होंने गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए भी काम किया और उनके लिए एक निःशुल्क शिक्षा चौपाल भी खोली।
शशि एलन का जीवन बहुत ही सफल रहा, लेकिन उन्होंने हमेशा महसूस किया कि उन्हें कुछ अधूरा रह गया है। उन्होंने अंतिम समय में ज़िद ठानी कि अब साधूभाव में जीना है। उन्होंने अपने परिवार से कहा कि वह चार संप्रदाय आश्रम वृंदावन में रहना चाहती हैं।
शशि एलन के परिवार को उनकी यह बात सुनकर बहुत दुख हुआ, लेकिन उन्होंने उनकी इच्छा का सम्मान किया। शशि एलन वृंदावन में कुछ दिन रहीं और फिर उनकी मृत्यु हो गई।
शशि एलन की मृत्यु के बाद उनके परिवार को उनके बेग में एक नेत्रदान का कार्ड मिला। इस कार्ड में एक नंबर लिखा था। परिवार ने उस नंबर पर फोन किया और शशि एलन के नेत्रों का दान कर दिया।
शशि एलन के नेत्रों से दो लोगों की अंधेरी जिंदगी में रोशनी भर गई। शशि एलन की यह कुर्बानी हमेशा याद रखी जाएगी।
शशि एलन का जीवन एक प्रेरणादायक कहानी है। उन्होंने अपने जीवन में हमेशा दूसरों की मदद करने का काम किया। वह एक सच्ची साध्वी थीं, और उन्होंने अपने अंतिम समय में भी अपने संकल्पों को पूरा किया।
शिक्षाविद श्रीमान संजय पाठक जी ने फेसबुक पर लिखा भावुकता पूर्ण संस्मरण :
उन्होंने ताउम्र वैभवपूर्ण जीवन जिया। घर-परिवार और व्यवहार में खूब मान-सम्मान पाया। खूब धार्मिक दिनचर्या और अनुष्ठान किए, चारों धाम घूमे, प्रयागराज में रहकर कुंभ स्नान किये, अनुग्रह और परमार्थ के कार्य किये, फिर भी कुछ अधूरापन लगा तो गरीब-असहाय बालक-बालिकाओं के लिए निःशुल्क “शिक्षा चौपाल” खोला, निःशुल्क स्वरोज़गार की ट्रेनिंग दी । इसके बाद भी जब तृप्ति न हुयी तो जीवन के अंतिम दिनों में ज़िद ठानी कि अब साधूभाव में जीना है। जीवन के अंतिम पड़ाव में ये कैसी अड़? ये कैसा हठ ? भरे-पूरे घर को छोड़, जीवन वैभव छोड़, अब कहाँ भटकोगी माई? जब दवाओं के सहारे जीवन चलता हो, जब चार कदम चलना चार धाम चलने के समान हो, जब शरीर बोझ बना जाता हो, तब ये कैसा बाल आग्रह? कौन मानेगा इस हूराग्रह को इस मुढ़ाग्रह को?…….लेकिन ये ज़िद नहीं थी, ये संकल्प था !!जो अनायास उदीप्त न हुआ था, जाने कितने ही जन्मों का प्रकल्प था ये, जो सीने में दबाये बैठी थीं।उनकी बड़ी बहन बताती थीं कि बचपन से यही राग था इनका। विवाह को राज़ी न होती थीं, घर छोड़ कर भागने को होतीं, पूरा घर चौकसी रखता। जब सोतीं तो दोनों सिरों पर एक एक बहन को सुलाया जाता।एक दिन पारिवारिक गुरुजी आये, सारी घटना उनके संज्ञान में आयी,। उन्होंने समझाया;-“ पहले विवाह करो, संतान पालो, फिर उनका विवाह करो उसके बाद भी अगर चित्त में साधु शेष रह जाये तभी समझना कि तुम्हारे अंतस् में साधुत्व है फिर उसे अपना लेना।”अब जबकि उम्र चौरासी की होगयी है, शरीर भारी है, तमाम बीमारी हैं, लेकिन अंतर्मन का साधुत्व पूरी तरह चंगा है, वो अपना स्वरूप साक्षात करने को दिन प्रतिदिन झकझोरता है, कचोटता है, अड़ता है भिड़ता है। ये ज़िद उस माई की थोड़े ही थी ये तो उसके मन्तस में समाये उस साधु की थी, जो “सही समय” के इंतज़ार की मर्यादा पूरी करता था। अब और कौन सा समय आना है? बच्चे पाल दिये, खूब बड़े ओहदों पर पहुँच गये, शादी कर दी। पोते-पोती जवान हो गये, कुछ विवाहित हो लिये, कुछ हो लेंगे, देश-विदेश में तृप्त जीवन जीते हैं, अब किसका इंतज़ार ? अब कौन सी रोक?पहले पिता रोकते थे, गुरु रोकते थे, अब पति रोकते हैं बच्चे रोकते हैं….अब क्यों रुकें? भोग और आरामतलबी से ज्यादा क्या कुछ शेष रहा है? मोह से परे कदम रखना होगा, जीवन की उस कसक को मिटाना होगा जो अंतस् में खलबली बचाये जाती है, जीवन तो नित-नित्या है सब कुछ होते-सोते मुट्ठी रीती सी लगती है, अब अनित्य को विचारना होगा। जीवन पार की उलझन सुलझानी होगी।….बूढ़ी माई बालकों सी रो पड़ी, भारी मन से परिवार ने अनुमति दे दी।“चार संप्रदाय आश्रम वृंदावन” में कमरा तो ढाई दशक पहले ही बनवा रखा था, थोड़ा ठीक-ठाक करवाया और गयीं रहने। नये वातावरण के नये प्रकाश में खूब नहायीं।जीवन से ज्यादा मृत्यु का स्मरण कर, अभी कुछ दिन पहले ही वापस आयी थीं।खूब खुश थीं। अरमानों को जीत कर आयी थीं। जीवन के समस्त ऋण चुका कर आयी थीं,जीवन बोझ को प्रभु चरणों में उड़ेल कर आयी थीं। बेटे ने सारे मेडिकल टेस्ट करवाये थे, कोई कमी न निकली, परिवारी खुश थे, लेकिन कल रात्रि को बेटे से बात करते करते जीभ पलट गयी, यकायक प्राण निकल गये। विश्वास न हुआ तो अस्पताल लाया गया। ई सी जी हुआ और मृत्यु प्रमाणित हो गयी।इसी बीच लंदन से पोती का फ़ोन पिता के पास आया और हिदायत मिली कि दादी के बेग में नेत्र दान का कार्ड है, उसमें अंकित नंबर पर फ़ौरन फ़ोन कर दें और नेत्र दान करवा दें।दादी ने अपनी पोती को गुपचुप ये दायित्व सौंपा था। उन्हें पुत्र पर संशय था शायद हिचक जाय । बिटिया ने ज़िम्मेदारी समय से पूरी कर दी। और समय रहते नेत्रदान हो गया। वरना ज़िद्दी दादी को अपने नेत्र दान के इस संकल्प को पूर्ण करने शायद पुनः इस मृत्युलोक में आना पड़ता |